आवरण / कवच
प्यार भरा नमस्कार दोस्तों ,
इस बड़ी सी दुनिया में लम्बा अरसा गुजारने, बहुत सी जिम्मेदारियां सँभालने और ऊंची - ऊंची पदवियां हासिल करने के बावजूद भी माँ-बाप की नज़र में हम और हमारा वजूद छोटे बच्चे जैसा ही रहता है....कितना कुछ है जो हम उनसे कभी न पूछते हैं और ना वो हम पर जाहिर करते हैं ...वो एक छाया की तरह हैं या कि एक खोल... जो हमे ढक लेता है ...आराम देता है ...उसके हटने और बाहर की तपन , चुभन और दिक्कतों से सामना होने पर ही उस (आवरण / कवच) की कमी का एहसास और जरूरत समझ आती है ...माँ-पापा के नाम चंद लाइने मेरी कलम से ....
'मरीज़ माँ '
''माँ मरीज़ थी मेरी ......अपने या मेरे बचपन से ....नहीं पता
माँ मरीज़ थी ...बाज़ार नही जाती थी , घर के कामों में ही सर खपाती थी
माँ मरीज़ थी ...पर घर कांच सा चमकती थी और मुझे अपने हाथ के सिये कपड़े पहनाती थी
माँ मरीज़ थी ...रात -रात को उठकर लम्बी सांस को तरसती और अपनी उखड़ती सांसो को बांधने की जद्दोजहद में लगी रहती थी....
माँ दिल की मरीज़ थी ... दिल पहले मरीज़ हुआ या माँ ...नहीं पता
माँ दिल की मरीज थी ...अपने वक्तों में दुनिया के उसूलों से परे जाकर माँ पापा के घर आई थी
....माँ ' हमारी माँ ' थी
माँ बीमार थी.... कहती नहीं थी ....और कुछ था ..जो बिना बताये साथ लेकर चली गयी ....मरीज़ माँ ''.
---------------------------------------X------------------------------
' मेरे पापा '
'' बंद खिड़की से झांकती रौशनी ,
बंद दरवाज़ों के पीछे से बोलती दीवारें
वो छत पे लटका कमज़ोर पंखा ,
वो बिस्तर की पुरानी मैली चादर
सब बतातें हैं ....पापा थे तो इनके भी अच्छे दिन थे
वो कोने में पड़े झोले में ठूसें ऐश ट्रे , नाव्ल्स , पेंसिल और ड्राइंग कापी
सब बतातें हैं.... उनके भी कितने मजे हुआ करते थे ....''
-------------------------------X -----------------------------



एक कभी न भरने वाली रिक्तता ....एक कभी न पूरी होने वाली कमी के साथ ...आज के लिए बस इतना ही
अपना ख्याल रखियेगा .......
इस बड़ी सी दुनिया में लम्बा अरसा गुजारने, बहुत सी जिम्मेदारियां सँभालने और ऊंची - ऊंची पदवियां हासिल करने के बावजूद भी माँ-बाप की नज़र में हम और हमारा वजूद छोटे बच्चे जैसा ही रहता है....कितना कुछ है जो हम उनसे कभी न पूछते हैं और ना वो हम पर जाहिर करते हैं ...वो एक छाया की तरह हैं या कि एक खोल... जो हमे ढक लेता है ...आराम देता है ...उसके हटने और बाहर की तपन , चुभन और दिक्कतों से सामना होने पर ही उस (आवरण / कवच) की कमी का एहसास और जरूरत समझ आती है ...माँ-पापा के नाम चंद लाइने मेरी कलम से ....
'मरीज़ माँ '
''माँ मरीज़ थी मेरी ......अपने या मेरे बचपन से ....नहीं पता
माँ मरीज़ थी ...बाज़ार नही जाती थी , घर के कामों में ही सर खपाती थी
माँ मरीज़ थी ...पर घर कांच सा चमकती थी और मुझे अपने हाथ के सिये कपड़े पहनाती थी
माँ मरीज़ थी ...रात -रात को उठकर लम्बी सांस को तरसती और अपनी उखड़ती सांसो को बांधने की जद्दोजहद में लगी रहती थी....
माँ दिल की मरीज़ थी ... दिल पहले मरीज़ हुआ या माँ ...नहीं पता
माँ दिल की मरीज थी ...अपने वक्तों में दुनिया के उसूलों से परे जाकर माँ पापा के घर आई थी
....माँ ' हमारी माँ ' थी
माँ बीमार थी.... कहती नहीं थी ....और कुछ था ..जो बिना बताये साथ लेकर चली गयी ....मरीज़ माँ ''.
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' मेरे पापा '
'' बंद खिड़की से झांकती रौशनी ,
बंद दरवाज़ों के पीछे से बोलती दीवारें
वो छत पे लटका कमज़ोर पंखा ,
वो बिस्तर की पुरानी मैली चादर
सब बतातें हैं ....पापा थे तो इनके भी अच्छे दिन थे
वो कोने में पड़े झोले में ठूसें ऐश ट्रे , नाव्ल्स , पेंसिल और ड्राइंग कापी
सब बतातें हैं.... उनके भी कितने मजे हुआ करते थे ....''
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एक कभी न भरने वाली रिक्तता ....एक कभी न पूरी होने वाली कमी के साथ ...आज के लिए बस इतना ही
अपना ख्याल रखियेगा .......
मेरी माँ मेरी दोस्त मेरी हमराज़ ..मैंने कभी कोई बात उनसे नहीं छुपाई ...पर बहुत जल्दी साथ छूट गया पर उस कमी को पापा ने पूरी की ..वो मेरी माँ बन गए ..दोस्त तो वो पहले से ही थे पर अब हमराज़ भी बन गए ...बहुत नसीबो वाली थी मैं ...और फिर अचानक वो भी चले गए ...उस रिक्तता को कोई नहीं भर पाया फिर ...समझ सकती हूँ जज़्बात के जज़्बातों को ...
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