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किंकर्तव्यविमूढ़ ?’

‘कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’... फल की इच्छा के बिना किया कर्म ही धर्म है ! यानि कर्म प्रधान जीवन ही सार्थक है ! परिवार का पालन-पोषण, शत्रु का नाश, युद्ध आदि  कर्म की श्रेणी में आते हैं ! सुना कि वर्तमान कर्म अगले जन्म की नींव रखता है अगले जन्म की तैयारी ही इस जन्म की सार्थकता है ! कर्म के लिए आवश्यक है कि वो नैतिकता की परिभाषा में आता हो ! अन्यथा अगला जन्म एक सजा होगा ! अनेक सत्कर्मों का, संयम और सत्यनिष्ठ जीवन का प्रतिफल है मनुष्य योनि में जन्म ! कर्म अगले जन्म की योनि निर्धारित करते हैं ! इन सब अंतरनिहित द्वन्द और विचारों से लड़ ही रही थी कि.... देखा सड़क पर एक निरीह पिल्ले को एक बालक ने व्यर्थ पत्थर खींचकर मारा  पिल्ला किकियाता हुआ भाग खड़ा हुआ ! अचानक फ़िर वाद-विवाद में पड़ गयी ...कि ये क्या पिल्ले के पूर्वजन्म के  दुष्कर्म हैं जो वो पशु योनि में जन्मा है ? क्या अभी भी इसके पूर्व पाप ख़त्म नही हुए हैं जो ये बिना कारण पत्थर खा रहा है ? बालक जन्म क्या उसने अपने पूर्व के सत्कर्मों से पाया है ? पर बिना कारण क्यों उसने वो पत्थर उठाया ? क्या ये दोनो का पूर्व जन्म का बैर है ? क्या