किंकर्तव्यविमूढ़ ?’
‘कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’...
फल की इच्छा के बिना किया कर्म ही धर्म है !
यानि कर्म प्रधान जीवन ही सार्थक है !
परिवार का पालन-पोषण, शत्रु का नाश, युद्ध आदि
कर्म की श्रेणी में आते हैं !
सुना कि वर्तमान कर्म अगले जन्म की नींव रखता है
अगले जन्म की तैयारी ही इस जन्म की सार्थकता है !
कर्म के लिए आवश्यक है कि वो नैतिकता की परिभाषा में आता हो !
अन्यथा अगला जन्म एक सजा होगा !
अनेक सत्कर्मों का, संयम और सत्यनिष्ठ जीवन का प्रतिफल है मनुष्य योनि में जन्म !
कर्म अगले जन्म की योनि निर्धारित करते हैं !
इन सब अंतरनिहित द्वन्द और विचारों से लड़ ही रही थी कि....
देखा सड़क पर एक निरीह पिल्ले को एक बालक ने व्यर्थ पत्थर खींचकर मारा
पिल्ला किकियाता हुआ भाग खड़ा हुआ !
अचानक फ़िर वाद-विवाद में पड़ गयी ...कि
ये क्या पिल्ले के पूर्वजन्म के दुष्कर्म हैं जो वो पशु योनि में जन्मा है ?
क्या अभी भी इसके पूर्व पाप ख़त्म नही हुए हैं जो ये बिना कारण पत्थर खा रहा है ?
बालक जन्म क्या उसने अपने पूर्व के सत्कर्मों से पाया है ?
पर बिना कारण क्यों उसने वो पत्थर उठाया ?
क्या ये बालक का पाप कर्म है ? क्या ये इस जन्म के कर्मों में जुड़ेगा ?
पिल्ला बनकर पैदा होने पर भी क्या वो पूर्व कर्मों को नही भोग चुका ?
क्या वो अब पत्थर और लातों से पिटकर भी पुराना हिसाब चुकाएगा ?
तो क्या पिल्ला अगले जन्म में मनुष्य योनि पाएगा ?
क्या दोनो को पिछला याद है ? या आगे भी ये वाला याद रह जाएगा ?
क्या अगले जन्म में सुख पाने की लालसा से किया इस जन्म का कर्म स्वार्थ श्रेणी में नही रखा जाएगा ?
©jazbat
Ranjana B.(26/10/20)
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