किशोरावस्था (टीनेज )

प्यार भरा नमस्कार दोस्तों ,

इस विषय पर लिखने के लिए मेरी प्रिय मित्रों में से एक ने कहा , शायद मेरी मित्र को लगा कि मैं इस विषय से इंसाफ कर पाऊंगी ..... इस विश्वास के लिए दिल से शुक्रिया .....

अपने २२ साला शिक्षण करियर के दौरान लगभग हर तरह के बच्चो , छोटो  से लेकर किशोरों तक से बराबर संपर्क रहा या सही कहूँ तो ( शुरुआती ५-७ सालों  को छोड़ कर )किशोरों  (टीन-एजर्स ) से ज्यादा सामना हुआ .

" तूफानी उम्र " कहलाती है ये , बच्चो की गति से ज्यादा उनमे होने वाले विविध ,विचित्र एवं तीव्र बदलावों की वजह से ...... कितना मुश्किल होता है तूफ़ान का सामना ..... ईमानदारी से विचार करियेगा...क्योंकि ईमानदार सही सोच  ही  ठीक - ठीक समझने में मदद करेगी और याद दिलाएगी झंझावातों से भरा वो दौर  जिससे  या तो आप निकल चुके हैं या निकल रहे हैं...

मानसिक , शारीरिक , भावनात्मक , सामाजिक और पारिवारिक बदलावों का वो समय जब अपने स्वयं से ही द्वन्द है .....मानसिक बदलाव प्राकृतिक रूप से बड़ा या छोटा होने के सामंजस्य में लगा देता है , शरीर अपने नैसर्गिक बदलावों  से विस्मृत करता है , भावनायें विपरीत लिंग के प्रति सहज आकर्षण पैदा करती हैं (जो जन्मजात भी होता है ...माँ बेटे का , बाप बेटी का , बहन भाई का आपसी तालमेल इसी की बानगी है ,किन्तु इसमें आकर्षण का प्रकार अलग होता है ) , समाज (विशेषकर बड़े बुजुर्ग ) अपने व्यक्तिगत अनुभव को ताक पर रखकर नयी पीढ़ी के इन सामान्य एवं सार्वभौमिक  परिवर्तनों से निपट अनभिज्ञ बनकर अधिकतर ही  वर्तमान समय और नयी पीढ़ी के बिगड़ जाने की दुहाई देते रहते हैं और सर्वोपरि परिवार जो इन्सान के जीवन का केंद्र है और जिसका किरदार सबसे अहम है , वो अधिकतर इस उम्र के साथ पूरा न्याय नहीं कर  पाता, बावजूद इसके कि घर के बड़े इसी परिवर्तन से गुजर चुके हैं ....

व्यक्तिगत तौर पर मैं ' किशोरावस्था ' में अधिकतर  बच्चो के उद्दंड , उच्छ्रन्ख्ल , अनुशासनहीन , अमर्यादित होने को पूरी तरह से सिर्फ उनकी ही गलती नहीं मानती ... क्योंकि इस उम्र में उन्हें शिशु-अवस्था से ज्यादा ध्यान , अपनेपन और (सबसे जरूरी )समय की जरूरत होती  है ...जो उस परिवार के पास भी अधिकतर नहीं होता जो उनको वैसे तो बड़ा और जिम्मेदार होने की दुहाई देता है , पर गलत निर्णय पर तुरंत अपनी सीमओं में रहने और ज्यादा बड़े न बनने का ताना देता है ....और शिक्षक जिनकी भूमिका इस समय अधिक अहम हो जाती है, उनमें  से अधिकतर  स्वस्थ समाज की नींव और अगली पीढ़ी के प्रति अपनी जवाबदेही को अभिभावकों के सर मढ़ कर अपने को इस अति महतवपूर्ण काम से अलग कर लेते  हैं... रहा समाज तो वो एक ऐसी इकाई है जो इस उम्र के लिए घर-परिवार और विद्यालय का पर्याय है और दुनिया है उनके दोस्त जो एक ही उम्र के होने के कारण सापेक्ष  योगदान कम ही दे पाते हैं.

' किशोरावस्था '  और उससे जुड़े परिवर्तन एक  प्राक्रतिक नियम हैं ....उन बदलावों का न होना बालक को असामान्य की श्रेणी में ला सकता है ...वही किशोरों को संतुलित बनाना , सही मार्गदर्शन (उनकी अवस्था और सोच को ध्यान में रखते हुए ) देना , एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करना और उसमे उनकी यथोचित भागीदारी (उनकी पसंद-नापसंद को ध्यान में रखते हुए ) दर्ज करवाना हम सबका फ़र्ज़ है ...

स्वस्थ समाज और अगली पीढ़ी के उचित विकास की प्रक्रिया में अपनी भागीदारी पर विचार करियेगा ......आज के लिए बस इतना ही



अपना ख्याल रखियेगा ........

Comments

  1. Sahi kaha mam.....kai Baar to lagta hai....kaise parenting kare....aajkal ke bacchey her baat pe argument karte hai....

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    1. 'ajkal ke bachche ' har age me har ma-baap ka pet dailouge...... give them time dear and talk about all fields .

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  2. The most prominent reason of all misunderstandings and conceptual differences is lack of communication not lack of time.....and more importantly lack of constructive communication....in this rapid age of fast technological development...much of the apparent knowledge is gained by internet these days and that is where the complexity lies.... Constructive and meaningful communication is the need of the hour.

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  3. when we spend time together we talk ....but usual scenario is that all are busy in their own personal domain and expect that things will take place naturally and nicely ,while sparing time and making a room for healthy conversation on almost all related field (keeping in mind the type of topic ...to be discussed in public or private) are the prime needs.....do agree with your thoughts ....THANKS.

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