धर्म या अधर्म (आप बताएं )

प्यार भरा नमस्कार दोस्तों,

हाहाकार मचा है देश में ....धर्म की लकीर बीच में है ...एक ओर हैं धर्म के नाम पर व्यापार चलाने वाले बाबा के अन्धविश्वासी अराजक भक्त हैं ...तो दूसरी ओर हैं वो लोग जो वास्तविकता और विकास के पक्षधर हैं .


मैं यदि नास्तिक नहीं हूँ तो बहुत नेम-धरम वाली आस्तिक भी नहीं कहलाई जा सकती ... मैं मंदिर नहीं जाती , पूजा भी ठीक से नहीं करना जानती , मैं व्रत भी गिने - चुने और अपनी सुविधा से ही करती हूँ . मैं किसी मामले में आदर्श महिला नहीं हूँ .लेकिन मैं अपना काम पूजा की तरह ही करती हूँ , मैं किसी क्लब या किटी की सदस्या भी नहीं हूँ ( अक्सर ऐसे सदस्यों को मैंने सामाजिक रूप से अति दानशील और अख़बारों की सुर्ख़ियों में , फोटोज में देखा है पर निजी जीवन में घरेलू नौकरों या इनके प्रतिष्ठानों में काम करने वालों के प्रति ये असंवेदनशील और शोषण का ही भाव रखतें हैं / ये सब पर लागू नहीं होता है  ) यक़ीनन मैं अपने पर इस बात का गर्व कर सकती हूँ कि मैं किसी का दिल नहीं दुखाती और किसी को दुखी देखकर मेरा मन दुखता है , मैं भजन - आरती नहीं गाती ( वैसे मैं जानती हूँ और कीर्तन में गाती भी हूँ ) पर ये भी तय है कि मैं किसी से कडवे / दिल दुखाने वाले शब्द भी नहीं बोल पाती, मैं दूसरों का बिना जाति, धर्म और रुतबा देखे सम्मान करती हूँ (जब तक सामनेवाला सहनीय और सही है)  मैं अपनी जिम्मेदारियों की जवाबदारी लेती हूँ , समाज का नागरिक होने के नाते अपने कर्तव्यों को लेकर जागरूक हूँ  और साथ ही  मैं उस अद्रश्य शक्ति में जरूर भरोसा रखती हूँ ,जो यदा-कदा मुझे किसी अप्रत्याशित काम के अचानक हो जाने या सोचा हुआ पूरा हो जाने से महसूस होती है .
कुल मिलाकर मैं मानती हूँ कि मैं इतनी संयत , शांत , आत्म -विश्वासी हूँ , की  पक्की तौर पर मुझे किसी ऐसे धार्मिक गुरु या बाबा की जरूरत नहीं जो मुझे शांत , धार्मिक और सुरक्षित रहने के लिए मदद करे ....(वो बाबा जो ज्यादातर बलात्कारी , अधर्मी , अन्धविश्वास को बढ़ाने वाले , बड़ी जायदाद के मालिक , रईस अनुयायियों से घिरे और अपने पिछले जीवन में असामाजिक हरकतों में लिप्त रह चुके होतें हैं ).

धर्म किसी का भी हो अगर हमें अच्छा इन्सान नहीं बनाता, तो बेकार है ...अगर तलाक के नाम पर स्त्रियों को प्रताड़ित करता है, तो बेकार है ...अनुयायियों को उग्र , अनैतिक , आक्रामक , अराजक और असामजिक बनाता है ,तो बेकार है... इन्सान को इन्सान का दुश्मन बनाता है ,तो बेकार है.... मन को शांत , क्रोध मुक्त नही  बनाता , तो बेकार है ... हमें जात-पात , कर्म-कांड और भेद-भाव से ऊपर नहीं उठता , तो बेकार है ... जीवन को सरल , सुखद और सहयोगपूर्ण नहीं बनाता , तो बेकार है .... धर्म हमें मानवता नहीं सीखाता , तो बेकार है .

ये धर्म को लेकर मेरा मत है ....आपके अपने विचार होंगे ...पर मुझे यकीं है कि धर्म और मानवता को आप भी एक ही सिक्के के दो पहलू मानते होंगे ...ईमानदारी से सोचियेगा ..क्योकि तभी आप अपने धार्मिक होने को पूरी तरह न्यायोचित भी ठहरा पाएंगे ...

समाज जोकि हमसे बना है ...उसी को सही दिशा , सही राह और सही समझ देने की लालसा में ...आज के लिए बस इतना ही ....

अपना ख्याल रखियेगा .....

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