दोस्ती

प्यार भरा नमस्कार दोस्तों ,

अगस्त का पहला इतवार यानि दोस्ती का त्यौहार , हर माध्यम से दोस्ती के संदेशो का आदान - प्रदान ....हर किसी दुसरे खास दिन की तरह ये दिन भी मन को प्रफ्फुलित कर देता है ....दोस्ती ' एक ऐसा रिश्ता जिसमे किस्मत , कानून या खून का दखल नहीं होता ' किस्मत से हमें घर- परिवार माँ-बाप मिलतें हैं , कानून से हमें पति-पत्नी और ससुराल के रिश्ते मिलतें हैं और खून से हमें भाई-बहन मिलते हैं ...काफी हद तक इनसे हमारा रिश्ता बहुत गहरा होता है ....पर दोस्ती , रिश्तों का शायद एक अलग ही आयाम है ...दोस्त हम खुद चुनते हैं, बनाते हैं और अपनी ही चाहतों और इच्छा से इस रिश्ते को निभाते हैं ,इसमें दिल का अहम किरदार होता है ...कभी-कभी घर वालों के खिलाफ जाकर ,कभी -कभी सामाजिक दायरों के बाहर जाकर भी .....पर दोस्ती जिस उम्र , दौर या अवस्था में हो. है बड़ी प्यारी चीज़ ....पर शर्त ये है की ईमानदार और वफादार भी हो '' जो है मन से पवित्र , वो ही सच्चा मित्र '' ...यूँ  तो आज के समय में लगभग  हम सभी के पास दोस्तों की एक लम्बी फेहरिस्त है ...पर कुछ से हम मतलब से जुड़े हैं और कुछ हमसे ...कुछ से हम निभा रहे हैं और कुछ हमसे ...कुछ के पीठ पीछे हम शिकायतों का पुलिंदा खोलतें हैं और कुछ हमारे पीछे ....कुछ सिर्फ  ऑनलाइन ही हमारे हैं और ऑफ लाइन नदारद और कुछ मुँह पर हमारे हैं और हम उनके.....

आप भी सोचते होंगे की आज के ख़ास दिन पर भी इतना खारा पोस्ट ....पर  क्या हमारे पास एक या दो  , ही वो असली , सच्चे दोस्त हैं जिनके सामने दिल खोल कर रखा जा सके....ईमानदारी से सोचियेगा और यदि आपका जवाब हाँ है तो अपने को बहुत भाग्यशाली समझिएगा ...

दिल की बात है ...मेरे लफ़्ज़ों में ...दो छोटी छोटी कहानियाँ ....

१)घंटी बजाने के अंदाज़ से ही मैं समझ गई थी कि पड़ोसन श्रीमती वर्मा ही होंगीं . झुंझलाते हुए दरवाज़ा खोला , तो वही खड़ी मुस्कुरा रहीं थीं . टमाटर मांगते हुए बोली '' इसी बहाने आपसे मुलाकात हो जाती है वरना आप तो आती ही नहीं हैं ''. बड़े अनमने मन से उन्हें विदा कर दिया दरवाज़े से ही . ''बड़ी चिपकू हैं '', मैंने कहा .
रात के दो बजे मैंने घर की घंटी और दरवाज़ा एक साथ बजाये तो बड़े आश्चर्य और चिंता के भाव के साथ श्रीमती वर्मा ने गेट खोला .
श्रीमान और श्रीमती वर्मा के सहयोग से पति को अस्पताल में भर्ती  करवाकर जब मैं बैठी , तो श्रीमती वर्मा ने  कंधे पर हाथ रखते हुए कहा ''अच्छा लगा कि अपने हमे अपना समझा ''.
संकोचवश इतना ही कह पाई '' शुरुआत तो अपने ही की थी ''.
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२) पापा की जिद के आगे दादी को मजबूर होकर मुझे पड़ोस वाले शर्मा दादाजी  के स्कूल में आठवीं के आगे की पढाई के लिए जाने की इजाज़त देनी ही पड़ी थी , शर्मा दादाजी हमारे घर के सदस्य जैसे ही थे और उस स्कूल में ग्यारहवीं - बाहरवीं के हिंदी टीचर भी ...मेरी देखा-देखी  हमारे पड़ोस की चार और लड़कियों ने वहां दाखिला लिया था , स्कूल के पहले हफ्ते में ही हमारी क्लास के मेधावी , वाक्पटु और मिलनसार और स्कूल के पुराने छात्र मुकेश ने मुझे बहत प्रभावित किया था ...किन्तु माँ की नसीहतों , दादी की चेतावनी और शर्मा दादाजी के कड़क लहजे के कारण कभी उससे बात करने की हिम्मत नहीं हुयी ...नवमी के बाद दसवीं में भी लडको में मुकेश और लड़कियों में मैंने प्रथम स्थान पाया और हमें सम्मानित करने के लिए किये गए आयोजन में पहली बार मैंने उसे बधाई देते हुए उसकी बुध्हिमानी की तारीफ की ....तो उसने बहुत ही विनम्रता से मेरी भी सराहना की थी ...
ग्यारहवीं और फिर बारहवीं में वाद-विवाद , भाषण और अन्य प्रतियोगिताओ में हमारी अच्छी टक्कर होती रही ...और फिर बारहवीं मैंने और उसने बहुत अच्छे नम्बरों से पास की ..उसे फिर से स्कालरशिप मिली और दुसरे शहर में एक अच्छे  कॉलेज में एडमिशन भी ...मैंने उसे बधाई दी तो उसने सहज ही कहा ''हम अच्छे दोस्त हैं आगे भी साथ में अच्छे रिजल्ट लायेंगे ''...'' हम दोस्त कब बने ''? मैंने आश्चर्य से कहा तो उसने कहा ''मेरे लिए तो उसी दिन जब भाषण प्रतियोगिता में मेरे अटकने पर तुमने मुझे इशारे से याद दिलाया था और एक बार मेरी कॉपी तुम अपना  पुराना काम पूरा करने के लिए ले गयी थी और साथ ही आगे का नया पाठ भी लिख लायी थीं ''...तब ही शायद मैंने भी महसूस किया था कि वो भी तो एक दोस्त की भूमिका बखूबी अदा कर रहा था , जब परीक्षा के समय भाई के मुंडन की वजह से और दादी की मृत्यु पर मैं कई दिन स्कूल नहीं जा पाई थी तो ये वो ही था ,जो घर आकर अपनी कॉपी दे जाता था...बारहवीं के बाद माँ के कसम-धरम और कालेज के शहर से बाहर होने की वजह से इस बार पापा ने भी मुझे आगे न पढ़ाने का फैसला लिया था ...तब मुकेश ही था जो अपने पापा के साथ हमारे घर पापा को भरोसा दिलाने आया  था कि  वो वहाँ  मेरा ख्याल रख लेगा और मुझे मेरी पढाई आगे जारी रखनी चाहिए ...पापा ने बहुत ही नम्र तरीके से उसे मना कर दिया था ...वो मेरी उससे आखिरी मुलाक़ात थी ...
आज बेटे के 'ग्रेजुएशन डे' के मौके पर उसके स्कूल में बैठ कर पता नहीं कहाँ से मुझे ये पुरानी बाते याद आ गयी थीं  ...बेटे के नाम की आवाज सुनकर मैं वर्तमान में लौट आई थी ...लेकिन ये क्या ..कॉलेज डीन के रूप में मुकेश को वह देखकर मुझे बहुत सुखद आश्चर्य हुआ था ...प्रोग्राम के बाद सोचा की मिल लूँ ..फिर लगा कि अब वो शायद ही मुझे पहचाने ...और मैं बेटे के साथ बाहर जाने लगी, कि पीछे से आवाज आई " क्यों मिस्टर समीर अपने पेरेंट्स से नहीं मिलवाओगे ''? ये मुकेश की आवाज थी ,''WHY NOT SIR''! बेटे ने तपाक से कहा ...पास आकर मुकेश ने बड़े ही अपनेपन से कहा " सीमा तुम्हारा बेटा भी तुम्हारी तरह होनहार है "...मैं उसकी याददाश्त और विनम्र व्यवहार से अभिभूत हो गयी ...तभी उसने आगे कहा "आगे पढने के लिए किस कॉलेज में भेज रहे हो इसको "?
 " वो असल में......" ,  "क्या हुआ भाई कोई गलत सवाल पूछ लिया क्या "? मुकेश ने गंभीरता से कहा ,
" नहीं वो असल में पिछले साल ही इसके पापा ने तबियत की वजह से ऑफिस से V R S ले लिया है ,और बेटी की भी शादी करनी है , सो अब ये नौकरी तलाश करेगा ''. 
"AND I M VERY MUCH O.K WITH IT SIR ". बेटे ने मेरे संकोच को भापतें हुए कहा ...
घर आकर मैंने बेटे को आशीर्वाद देते हुए उसकी समझ की सराहना की ....
अगले ही दिन फोन पर मुकेश की आवाज सुनकर मैं चौंक गयी , जब उसने कहा ''सीमा कालेज में अतिथि शिक्षक के लिए समीर की जरूरत है , और वो शाम की क्लासेज में कॉलेज में ही अपनी आगे की पढाई जारी रख सकता है ,उम्मीद है ये प्रस्ताव तुम लोगो को स्वीकार होगा "....
और मेरे पास 'ना ' कहने की कोई खास और ठोस वजह नहीं थी ....
मुकेश ने एक बार फिर अपनी दोस्ती का प्रमाण दे दिया था ...

                                 
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चलिए उस दोस्ती का जश्न मानते हैं , जो हमें ख़ुशी देती है , जिससे हमें खास होने का एहसास हो , जो हर हाल हमारे साथ हो , जो हमें सुने ही नहीं समझे भी ...

'' सावधानी बरतें , 
गर दोस्ती के हैं रिश्ते 
     तो बीच न आयें शर्ते ''















आज के लिए बस इतना ही .......


अपना ख्याल रखियेगा ...........

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