' मन की बात ' प्यार भरा नमस्कार दोस्तों , काफी दिनों से कुछ नहीं लिखा। इसलिए नहीं कि कुछ था ही नहीं लिखने को या किसी भी बात ने मन को झकझोरा नहीं। बल्कि सच तो ये है कि lockdown की नीरवता मन पर भी छाई थी और जब कहीं कोई आहट ना हो तो लगता है कि अब हमारे यहां कौन आएगा। वैसे ही जैसे कि मेरे blogs पर कोई response नहीं था तो लगा कि जाने दो कोई नहीं पढता और अगर नहीं पढता तो या तो उसको मेरी बातें सही नहीं लगतीं या इनमें किसी के पसंद किये जाने लायक मुद्दे नहीं हैं। और हो भी सकता है कि लोगों ने आजकल पढ़ना कम और देखना ज्यादा शुरू कर दिया हो। फिर यकायक मन में आया कि नहीं ये सब मैं किसी की प्रतिक्रिया पाने के लिए नहीं लिखती (वो अलग है कि प्रतिक्रिया साकारत्मक हो तो हमें प्रोत्साहित करती है और नाकारात्मक हो तो सतर्क कर देती है) मैं लिखती हूँ अपने मन को हल्का करने के लिए उस बोझ से जो उन विचारों का होता है जो ख़ुशी से ज्यादा चिंता , कष्ट , खेद या गुस्से का कारण बनते हैं। यूँ भी हरेक का अपना -अपना अभिव्यक्
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साक्षर या शिक्षित
प्यार भरा नमस्कार दोस्तों , आज न्यूज़ पेपर में साक्षरता के बारें में पढ़ते-पढ़ते अनायास ही मन में एक सवाल कौंधा ....कि क्या अंतर है साक्षर और शिक्षित होने में ...आप में से यक़ीनन बहुत से लोग मेरी बात का अर्थ समझ गए होंगे ...जी हाँ ..हम साक्षरता का प्रतिशत तो बढ़ा रहें हैं पर क्या शिक्षितों की श्रेणी में आ रहे हैं ?????????? अंतर बड़ा है.... और इसे पाट पाना ही असल जीत है ...मेरे अधीनस्थ कर्मचारियों में कुछ चतुर्थ श्रेणी (4th class) भी साक्षर हैं ...और कुछ जो बेहतर ओहदों पर हैं वो साक्षर होकर भी निरक्षर समान ही कोरे कागज़ हैं ... सही समझे आप अपनी तनख्वाह या दैनिक मजदूरी कहीं पर अपना हस्ताक्षर बनाकर (या नाम ही लिखकर) लेने वाले को हम पढ़ा-लिखा (साक्षर) मानते हैं ...कुछ बेहतर सडकों पर लगे फ्लेक्स , दुकानों के बोर्ड , न्यूज़ पेपर की हैडलाइन आदि भी पढ़ लेतें हैं ...पर इनमे से ज्यादातर अपने नियोक्ता (employer) द्वारा बेवकूफ बना लिए जातें हैं ...या नेताओं द्वारा चुनावों में बरगला दिए जातें हैं ...या कार्य स्थलों पर शोषित (शारीरिक ही नहीं , क्योकिं वो तो शिक्षित भी हो जातें है ) किये जाते हैं ...य
प्यार भरा नमस्कार दोस्तों, श्री जवाहरलाल नेहरु के द्वारा लिखा एक लेख ‘’ CULTURE ‘’ पढ़ा और पढ़ाया भी था जो कि state बोर्ड की ग्यारहवीं या बारहवीं की इंग्लिश की किताब में था ... लेखक के शब्दों का आशय ( मेरे अनुसार) ये है कि culture यानि संस्कृति की कोई निश्चित परिभाषा नही हो सकती सिवाय इसके कि ये उन रिवाजों का निरंतर पालन है जो किसी समुदाय / स्थान /वर्ग विशेष की भौगोलिक / आर्थिक / सामाजिक स्थिति आदि से प्रभावित होते हैं और काफी हद तक इनका अतार्किक अनवरत पालन इनके पालन करने वालों को एक सीमा में बांध देता है ... लेखक का विश्वास है कि संस्कृति में भी नवीनीकरण अति आवश्यक है ...अन्यथा इसका हश्र भी उस रुके पानी के समान है जो सड़ने और बदबू करने लगता है और काई और कीटाणुओं को जन्म देता है ... प्राचीन संस्कृति के विवेकहीन अनुकरण और नवीनीकरण के ह्रास से इसके अनुयायी भी एक सीमा में बंध जाते हैं और सिमित मानसिकता का शिकार बन जाते हैं जहां परस्पर गाह्यता , सहिषुनता और विकास के रास्ते लगभग बंद ही हो जाते हैं ..ऐसे में समुदाय एकाकी , उपेक्षित और पिछड़े लोगों का झुण्ड मात्र बनकर रह जाता है ... ज
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